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Publisher Description

आप इस पुस्तक को पढ़ और सुन सकते हैं।
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बरसात के दिन हैं, सावन का महीना । आकाश में सुनहरी घटाएँ छाई हुई हैं । रह - रहकर रिमझिम वर्षा होने लगती है । अभी तीसरा पहर है ; पर ऐसा मालूम हों रहा है, शाम हो गयी । आमों के बाग़ में झूला पड़ा हुआ है । लड़कियाँ भी झूल रहीं हैं और उनकी माताएँ भी । दो-चार झूल रहीं हैं, दो चार झुला रही हैं । कोई कजली गाने लगती है, कोई बारहमासा । इस ऋतु में महिलाओं की बाल-स्मृतियाँ भी जाग उठती हैं । ये फुहारें मानो चिंताओं को ह्रदय से धो डालती हैं । मानो मुरझाए हुए मन को भी हरा कर देती हैं । सबके दिल उमंगों से भरे हुए हैं । घानी साडियों ने प्रकृति की हरियाली से नाता जोड़ा है ।

इसी समय एक बिसाती आकर झूले के पास खडा हो गया। उसे देखते ही झूला बंद हो गया। छोटी -बडी सबों ने आकर उसे घेर लिया। बिसाती ने अपना संदूक खोला और चमकती -दमकती चीजें निकालकर दिखाने लगा। कच्चे मोतियों के गहने थे, कच्चे लैस और गोटे, रंगीन मोजे, खूबसूरत गुडियां और गुडियों के गहने, बच्चों के लट्टू और झुनझुने। किसी ने कोई चीज ली, किसी ने कोई चीज। एक बडी-बडी आंखों वाली बालिका ने वह चीज पसंद की, जो उन चमकती हुई चीजों में सबसे सुंदर थी। वह गिरोजी रंग का एक चन्द्रहार था। मां से बोली--अम्मां, मैं यह हार लूंगी।

मां ने बिसाती से पूछा--बाबा, यह हार कितने का है - बिसाती ने हार को रूमाल से पोंछते हुए कहा- खरीद तो बीस आने की है, मालकिन जो चाहें दे दें।

माता ने कहा-यह तो बडा महंगा है। चार दिन में इसकी चमक-दमक जाती रहेगी।

बिसाती ने मार्मिक भाव से सिर हिलाकर कहा--बहूजी, चार दिन में तो बिटिया को असली चन्द्रहार मिल जाएगा! माता के ह्रदय पर इन सह्रदयता से भरे हुए शब्दों ने चोट की। हार ले लिया गया।

बालिका के आनंद की सीमा न थी। शायद हीरों के हार से भी उसे इतना आनंद न होता। उसे पहनकर वह सारे गांव में नाचती गिरी। उसके पास जो बाल-संपत्ति थी, उसमें सबसे मूल्यवान, सबसे प्रिय यही बिल्लौर का हार था। लडकी का नाम जालपा था, माता का मानकी।

महाशय दीनदयाल प्रयाग के छोटे - से गांव में रहते थे। वह किसान न थे पर खेती करते थे। वह जमींदार न थे पर जमींदारी करते थे। थानेदार न थे पर थानेदारी करते थे। वह थे जमींदार के मुख्तार। गांव पर उन्हीं की धाक थी। उनके पास चार चपरासी थे, एक घोडा, कई गाएं- - भैंसें। वेतन कुल पांच रूपये पाते थे, जो उनके तंबाकू के खर्च को भी काफी न होता था। उनकी आय के और कौन से मार्ग थे, यह कौन जानता है। जालपा उन्हीं की लडकी थी। पहले उसके तीन भाई और थे, पर इस समय वह अकेली थी। उससे कोई पूछता--तेरे भाई क्या हुए, तो वह बडी सरलता से कहती--बडी दूर खेलने गए हैं। कहते हैं, मुख्तार साहब ने एक गरीब आदमी को इतना पिटवाया था कि वह मर गया था। उसके तीन वर्ष के अंदर तीनों लङके जाते रहे। तब से बेचारे बहुत संभलकर चलते थे। फूंक - फूंककर पांव रखते, दूध के जले थे, छाछ भी फूंक - फूंककर पीते थे। माता और पिता के जीवन में और क्या अवलंब? दीनदयाल जब कभी प्रयाग जाते, तो जालपा के लिए कोई न कोई आभूषण जरूर लाते। उनकी व्यावहारिक बुद्धि में यह विचार ही न आता था कि जालपा किसी और चीज से अधिक प्रसन्न हो सकती है। गुडियां और खिलौने वह व्यर्थ समझते थे, इसलिए जालपा आभूषणों से ही खेलती थी। यही उसके खिलौने थे। वह बिल्लौर का हार, जो उसने बिसाती से लिया था, अब उसका सबसे प्यारा खिलौना था। असली हार की अभिलाषा अभी उसके मन में उदय ही नहीं हुई थी। गांव में कोई उत्सव होता, या कोई त्योहार पडता, तो वह उसी हार को पहनती। कोई दूसरा गहना उसकी आंखों में जंचता ही न था। एक दिन दीनदयाल लौटे, तो मानकी के लिए एक चन्द्रहार लाए। मानकी को यह साके बहुत दिनों से थी। यह हार पाकर वह मुग्ध हो गई। जालपा को अब अपना हार अच्छा न लगता, पिता से बोली--बाबूजी, मुझे भी ऐसा ही हार ला दीजिए।

GENRE
Fiction & Literature
RELEASED
2016
26 December
LANGUAGE
HI
Hindi
LENGTH
354
Pages
PUBLISHER
Sai ePublications
SIZE
241
MB

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