गुप्तधन
Descripción editorial
गुप्तधन प्रेमचंद की एक महत्वपूर्ण कहानी है। इस कहानी में एक व्यक्ति के भीतर दो तरह के विचारों के द्वन्द्व को दिखाया गया है। साथ ही कहानी में यह सन्देश भी है कि प्रलोभन से बड़ा कोई शत्रु नहीं। लोभ, मोह, क्रोध, पाप-पुण्य जैसी प्रवृतियाँ मनुष्य की स्वाभाविक वृति रही है। मनुष्य इन वृतियों में लगातार कुछ बेहतर करने की कोशिश करता है। कई बार मनुष्य जीवन इन वृतियों के परित्याग में ही खत्म हो जाता है, लेकिन वृतियाँ नहीं जाती। और कई बार मनुष्य थोड़ा सफल भी होता है इन वृतियों को त्यागने में। एक तरह से इंसानी जिंदगी का सम्पूर्ण सार यही है। गुप्तधन के बाबू हरिदास भी नेक इंसान हैं। उनके ह्रदय में दया, करुणा, सहानुभूति जैसी सम्पदा है। वे सेठ हैं बड़ा सा कारोबार चलाते हैं, पर मानवता का तकाजा त्याग कर नहीं। उन्होंने निराश्रितों को उचित स्थान दिया है। लेकिन एक बार एक निराश्रित का गुप्तधन उनके हाथ लग जाता है, जिसको पाने की उधम में उनकी मृत्यु हो जाती है। उनका अधूरा प्रयास उनके पुत्र करते हैं और वो भी मरणासन्न हो जाते हैं। अंत में उनकी चेतना वापस आती है और वह वो धन उसके स्वामी को सुपुर्द करते हैं। उनका जीवन लौट आता है। प्रेमचंद ने इस कथा के माध्यम से मनुष्य की प्रवृतियों को उद्घाटित किया है, जहाँ जीवन के अनंत क्रिया-व्यापार चलते रहते हैं।