परिणीता
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परिणीता शरदचंद्र चट्टोपाध्याय का एक प्रसिद्ध उपन्यास है। शैली और शिल्प की दृष्टि से यह जितना भावप्रवण है कथानक के लिहाज से उतना ही स्फूर्त-मर्मान्तक। इस उपन्यास का आधार भी बंगाली समाज है। अत: कथा वहाँ के परिवेशगत संरचना में चक्कर लगाती है। बंगाल ही नहीं अपितु पूरे भारत में बाल विवाह की परिपाटी रही है। जिसकी झलक बंगाली साहित्य में अनिवार्य रूप से दिखाई देती है। चूँकि बाल विवाह से उपजी चिंता को पहले-पहल बंगाली समाज ने रेखांकित किया। दूसरी बहस जो इस उपन्यास का मूलाधार है, वह है सामाजिक सुधार आंदोलनों का स्वरुप और प्रभाव। राजा राम मोहन राय से लेकर विद्यासागर और दयानंद सरस्वती तक जितने भी सुधार आन्दोलन चलाये गये ज्यादातर की शुरुआत बंगाल से होती है। परिणीता में भी आर्यसमाज बनाम सनातन समाज का द्वन्द्व स्पष्ट देखने को मिलता है। इसी आर्य बनाम सनातन के द्वन्द्व के साथ कथा चलती है लेकिन इसके भीतर है स्त्री-पुरुष का प्रेमी-प्रेमिका स्वभाव, जिसमें स्त्री ज्यादा संयत, तठस्थ तथा निर्दोष है और पुरुष भीरु स्वभाव का है। विद्वानों ने कहा है स्त्री का धर्म बांधना है। परिणीता की ललिता स्त्री के प्रकृति बंधन का प्राणपण से निर्वाह करती है, जब कि शेखर सामाजिक-आर्थिक सम्पन्नता के बाद भी भीरुता का परिचय देता है। वह धोखेबाज नहीं, लेकिन अपने सत्य से भागता है, एक तरह से पलायनवादी, नियतिवादी है। इस तरह शरद बाबू ने परिणीता के माध्यम से स्त्री का एक सशक्त स्वरुप प्रस्तुत किया है।