बड़ी दीदी
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बड़ी दीदी शरदचंद्र का एक दुखांत उपन्यास है, जैसे कि देवदास। शरद बाबू भारतीय साहित्य में लगभग ऐसे पहले साहित्यकार है, जिन्होंने दुखांत अंत की शुरूआत की। चूँकि दु:ख मनुष्य जीवन का एक सत्य है और एक ईमानदार-सचेतक साहित्यकार जीवन के इस सत्य को नजर-अंदाज नहीं कर सकता। शरद बाबू भी यहीं कर रहे थे। बड़ी दीदी एक ऐसे किशोर और एक ऐसे किशोरी विधवा की कहानी है जिसमें किशोर जीवन के धूप-छांव, दुःख-दर्द, सत्य-असत्य, भला-बूरा कुछ भी नहीं जानता। स्वभाग्य से उसकी विमाता, जिन्होंने उसकी परवरिश की है उसे कभी अभाव में नहीं रखा, बल्कि अपने मातृत्व से उसे ढकती रही हैं। जैसे प्रकृति के वैविध्य से शारीर का साक्षात्कार नहीं हो तो शारीर बीमार हो जाता है वैसे ही अगर जीवन के दुःख-सुख से मन का परिचय न हो मन बीमार हो जाता है और फिर व्यक्ति के व्यक्तित्व की कांति क्षीण हो जाती है। सुरेन्द्रनाथ के साथ भी ऐसा ही हुआ। दूसरी तरफ माधवी है जो किशोर विधवा है और अपने पिता के घर का सम्पूर्ण दायित्व अपने ऊपर लेकर अपने जीने का बहाना खोज रही है या अपने को भुलाये हुई है ऐसे में सुरेन्द्र का उसके जीवन में प्रवेश करना और फिर निकल जाना। दोनों ह्रदय से व्यक्त है लेकिन जुबान से अव्यक्त, एक के पास न भाषा है न शब्द और दूसरे के पास भाषा शब्द और कौशल सब है, लेकिन वह सब की बड़ी दीदी है, विधवा है, लोक-समाज की मर्यादा से बंधी है। अंत में मौन की मृत्यु और मर्यादा पर पर्दा लटक जाता है।