कंकाल
Utgivarens beskrivning
कंकाल जयशंकर प्रसाद का प्रसिद्ध और लोकप्रिय उपन्यास है। संसार के गत्य-आगत्य, स्थिर और चराचर, अगम और निगम कितना ईश्वरीय और कितना मनुष्य निर्मित है यही इस उपन्यास का मूल प्रतिपाद्य है। धर्म चाहे वह हिन्दू हो, ईसाई हो या इस्लाम हो या उसके भीतर के मार्ग सभी इंसानी प्रकृति की उपज है। प्रसाद जी लिखते हैं कि “संसार दूर से, नगर, जनपद सौध-श्रेणी, राजमार्ग और अट्टालिकाओं से जितना शोभन दिखाई पड़ता है, वैसा ही सरल और सुन्दर भीतर से नहीं है।” मानव मनोवृत्तियाँ प्रायः अपने लिये एक केन्द्र बना लिया करती हैं, जिसके चारों ओर वह आशा और उत्साह से नाचती रहती हैं। कई बार यह उत्साह समाज को दिशा-गति प्रदान करता है और कई बार जड़-स्थिर करने का। प्रसाद जी ने विचारों का गहन मंथन किया था और इसी मंथन से विष और अमृत निकाल रहे थे। उपन्यास की एक पात्र कहती है कि “रोती हूँ तो अपने भाग्य पर और हिन्दू समाज की अकारण निष्ठुरता पर, जो भौतिक वस्तुओं में तो बंटा लगा ही चुका है, भगवान पर भी स्वतंत्र भाग का साहस रखता है! जीवन और समाज की बुराई क्या है? पाप और कुछ नहीं है, जिन्हें हम छिपाकर करना चाहते हैं, उन्हीं कर्मों को पाप कह सकते हैं; परन्तु समाज का एक बड़ा भाग उसे यदि व्यवहार्य बना दे, तो वहीं कर्म पुण्य हो जाता है, धर्म हो जाता है।” इन्हीं तानों-बानों से इस उपन्यास की रचना हुई है जो अपने मूल में भी और व्यापक दृष्टि से भी हिन्दू धर्म-पंथ को आईना दिखाती है।