आदित्यवत् ज्ञान - परिचय श्रीमद् भगवद्गीता अध्याय पांचवा से
ब्रह्म का तेजस्वी ज्ञान हमें मुक्त करता है
Descripción editorial
श्रीमद् भगवद्गीता का पांचवां अध्याय अर्जुन द्वारा एक प्रश्न पूछने से शुरू होता है, जहाँ वे पूछते हैं की क्या श्रेष्ठ है, कर्मसन्यास या कर्मयोग। इसके उत्तर में, बिना किसी संदेह के श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्मयोग ही श्रेष्ठ है क्योंकि वह मार्ग सभी के लिए उपलब्ध हैं।
कर्मयोग अधिकांश लोगों के लिए बेहतर विकल्प है, क्योंकि गतिविधियों या उनके परिणामों से जुड़े बिना शरीर+मन को उनका काम करने देना अपेक्षाकृत आसान होता है। श्रीकृष्ण यहाँ तक कहते हैं कि जो लोग कर्मयोग का पालन करते हैं वे भी सन्यासी हैं, क्योंकि वे अपने कर्मों के फल को त्याग देते हैं।
कर्म योग यह हमारे मन को शुद्ध करता हैं और हमारे लिए उच्च आध्यात्मिक ज्ञान, समझ और अनुभवों के द्वार खोलेकर हमें आत्म-साक्षात्कार की उच्चतम अवस्था तक ले जा सकता हैं, जहाँ हम इस शरीर में रहते हुए ही चिरस्थायी परमानंद प्राप्ति कर सकेंगे।
इस संदर्भ में, इस अध्याय के श्लोक 2 से 12 तक कर्म योग और मन की शुद्धि पर ध्यान केंद्रित किया गया हैं, और श्लोक 13 से आगे के श्लोक आत्म-साक्षात्कार की उच्चतम अवस्था पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जहाँ हम समझ पाते हैं कि वास्तविक कर्ता कौन है और हमारी असली पहचान क्या है।
इस अध्याय के अंत में श्लोक 26-27 में श्रीकृष्ण ध्यान/निधिध्यासन के महत्व पर भी जोर देते हैं, क्योंकि इसके बिना ज्ञान केवल मस्तिष्क में ज्ञान के रूप में रहता है और एक जीवित अनुभव नहीं बनता है।
श्लोक 26-27 ध्यान के विषय के लिए एक क्लिफहैंगर की तरह भी काम करते हैं, क्योंकि छठे अध्याय में ध्यान/निधिध्यासन को बहुत विस्तार से कवर किया गया है।