योगक्षेमं वहाम्यहम् - श्रीमद् भगवद्गीता के नौवें अध्याय से परिचय
मैं भक्तों की कमी को पूरा करता हूँ और जो उनके पास है उसे सुरक्षित रखता हूँ
Descripción editorial
भगवद्गीता के मध्य में स्थित नौवां अध्याय विभिन्न कारणों से महत्वपूर्ण है। श्रीकृष्ण स्वयं इसे “राजविद्या राजगुह्यं” कहकर इसके महत्व पर प्रकाश डालते हैं, जिसका अर्थ है सबसे गुप्त ज्ञान या सभी ज्ञानों का राजा।
“राजविद्या राजगुह्यं” के अतिरिक्त, इस अध्याय के प्रथम दो श्लोकों में कई अन्य विशेषण जोड़े गए हैं जो यहाँ सिखाए गए ज्ञान के महत्व पर बल देते हैं।
इसके अलावा, यह अध्याय न केवल ज्ञान प्रदान करता है, बल्कि इसे हमारे दैनिक जीवन में लागू करने के लिए व्यावहारिक तरीके भी प्रदान करता है, जिससे हम ज्ञान को जीवंत अनुभव (विज्ञान) में बदल सकते हैं।
साथ ही, श्रीकृष्ण स्वयं आध्यात्मिक पथ के अनुयायियों से दो सबसे महत्वपूर्ण वादे करते हैं। पहला, “योगक्षेमं वहाम्यहम्,” अर्थात् जो कुछ अनुयायियों के पास है वे उसकी रक्षा करेंगे और उनकी आध्यात्मिक और भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे। दूसरा, “न मे भक्त: प्रणश्यति,” अर्थात् उनके भक्त कभी नाश नहीं होते।
वे उनके पास जो कुछ है उसकी रक्षा करेंगे और उनकी आध्यात्मिक और भौतिक, दोनों ही आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे। दूसरा, न मे भक्त: प्रणश्यति, अर्थात् उनके भक्तों का कभी नाश नहीं होता हैं।
इस प्रकार, यदि हम आध्यात्मिक पथ पर एकाग्रचित्त होकर ध्यान केन्द्रित करते हैं, तो श्रीकृष्ण न केवल हमारी रक्षा करते हैं और हमें वह प्रदान करते हैं जिसकी हमें आवश्यकता है, वे यह भी सुनिश्चित करते हैं कि हम जिस आध्यात्मिक पथ पर चल रहे हैं, उससे कभी विचलित न हों, जिससे आत्म-साक्षात्कार के अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति सुनिश्चित हो सके।
हमें इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए और श्रीकृष्ण द्वारा दिए गए वचनों के साथ इस अध्याय से प्राप्त ज्ञान और दैनिक अभ्यासों को आत्मसात करना चाहिए ताकि हम आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ सकें और अंततः श्रीकृष्ण के परम धाम तक पहुंच सकें।